*2024 के आम चुनाव को लोकतंत्र और संविधान की रक्षा* *की लड़ाई में बदल दें!*
देश में आम चुनाव चल रहा है। 2024 का यह लोकसभा चुनाव आजाद भारत के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण चुनाव साबित होने जा रहा है। भारत में लोकतंत्र और संविधान के भविष्य के लिहाज से यह चुनाव आपातकाल के खात्मे के बाद 1977 मे हुए चुनाव से भी ज्यादा निर्णायक है। पिछले दस वर्षों में मोदी-शाह के नेतृत्व में संघ-भाजपा की सरकार ने सिलसिलेवार ढंग से देश पर हिंदुत्ववादी तानाशाही और कॉर्पोरेट एकाधिकार की व्यवस्था को थोपने का काम किया है।
भ्रष्टाचार के खिलाफ विकास, रोजगार और उग्र राष्ट्रवाद की लहर पर सवार होकर आये नरेंद्र मोदी ने एक एक कर देश के संवैधानिक संस्थाओं को निर्मूल और कमजोर कर दिया। संघ परिवार की देख-रेख और उनकी योजनाओं के अनुरूप मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ सांप्रदायिक नफरत फैला कर बहुसंख्यक हिंदुओं में इस्लामिक राष्ट्र का काल्पनिक भय दिखा कर देश की आम जनता की एकता को तोड़ने का प्रयास किया गया ताकि सांप्रदायिक बहुमत के बल पर चुनाव जीता जा सके। चुनाव में जीत इसलिए ताकि सत्ता के बल पर देश के संसाधनों पर अपने कॉर्पोरेट मित्रों का अबाध कब्ज़ा कराया जा सके, पूंजीपतियों को लूट की खुली छूट दी जा सके। संघ परिवार और सरकार का मकसद एक तरफ कॉर्पोरेट लूट और दूसरी तरफ समाज का वर्णाश्रमी विचार पर पुनर्गठन करना है। इसलिए संविधान और लोकतंत्र के शासन के तहत दलितों, पिछड़ों आदिवासियों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों और अन्य कमजोर तबकों को मिले न्याय, समता और समान अवसर के आरक्षण सरीखे संवैधानिक प्रावधानों को सीमित और खत्म करने की खुली और छुपी कोशिशें लगातार पिछले दस वर्षों में होती रही हैं।
वर्तमान सत्ता देश में लोकतांत्रिक मूल्यों के स्थान पर मनुस्मृति पर आधारित ब्राह्मणवादी मूल्यों को बढ़ावा दे रही है, जिसका परिणाम यह है कि पिछले दस वर्षों में दलितों, महिलाओं और वंचित तबकों पर जुल्म और अत्याचार की घटनाएं अबाध रूप से बढ़ी हैं। इन तबकों पर समाज के सामंती और यथास्थितिवादी शक्तियों द्वारा पहले भी हमले होते रहे हैं, लेकिन उन्हें देश की सर्वोच्च सत्ता और चुनी हुई सरकार द्वारा ऐसा नैतिक समर्थन और अभयदान शायद ही पहले मिला हो। दलित आंदोलन, नारीवादी आंदोलन और आदिवासी संघर्षों को राष्ट्र विरोधी, माओवादी या टुकड़े - टुकड़े गैंग कहकर लांक्षित करना और उनका बर्बर दमन करना यह स्पष्ट कर देता है कि सत्ता की पक्षधरता किस तरफ है।
आंदोलनों के दमन और वैकल्पिक विचार के प्रति सरकार की इस असहिष्णुता का परिणाम है कि पिछले दस वर्षों में कलबुर्गी, गौरी लंकेश, नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे जैसे वाम जनवादी और तर्कशील बुद्धिजीवियों की हत्या कराई गई, और देश के तमाम लेखकों, विचारकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं को यू. ए. पी. ए. के तहत झूठे आरोपों में जेल मे डाल दिया गया। एक तरीके से इस सरकार ने लोकतंत्र, न्याय, समता और विवेक के खिलाफ एक खुला युद्ध छेड़ रखा है। स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता को खामोश कर, एक अहमक, चापलूस और वर्चस्व की विचारधारा का अंध समर्थन करने वाले रीढ़ विहीन मीडिया तंत्र का निर्माण किया गया है। प्रदेश में सरकार से सवाल पूछने वाले और पत्रकारिता का फर्ज़ निभाने वाले पत्रकारों को डरा कर खामोश करने, जेल मे डालने और हत्या कर उन्हे रास्ते से हटाने की घटनाएं भी सामने आई हैं। बलिया, मिर्जापुर के उदाहरण सामने हैं।
यह सरकार भारतीय संविधान के सभी मजबूत खंभों को कमजोर कर उसकी नींव हिलाने की कोशिश में लगी है ताकि लोकतंत्र के शासन को खत्म कर 'जन' की अवधारणा की जगह 'प्रजा' की अवधारणा थोपी जा सके, प्रजा जो कि जाति और धर्म के आधार पर बंटी हुई हो और जो सत्ताधीश को ईश्वर का दूत समझ कर उसके अन्याय और अत्याचार को प्रसाद और पूर्व जन्म का फल मानकर सहती रहे।
सरकार की इन्ही नीतियों का परिणाम है कि आज देश में गरीबी में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई है, महंगाई और बेरोजगारी चरम पर है। देश के सरकारी विश्वविद्यालयों को चौपट कर शिक्षा में कॉर्पोरेट को बढ़ावा दिया जा रहा है। शिक्षा और रोजगार के अधिकार से बेदखल युवाओं में हताशा बढ़ती जा रही है, जिसके परिणाम स्वरूप किसानों की आत्महत्याओ के बाद युवाओं की आत्महत्या का सिलसिला चल पड़ा है।
उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड से किसानों की आत्महत्याओं की घटनाएं रुक नहीं रही है। सूखा, पाला और बेमौसम की बरसात के साथ सरकारी उपेक्षा और किसान विरोधी नीतियों की मार झेलता हुआ किसान और अधिक बदहाली का शिकार हुआ है। पूर्वांचल, बुंदेलखंड हो या पश्चिम उत्तर प्रदेश के गन्ना किसान हों मोदी - योगी की सरकार में दमन और उपेक्षा की मार झेलने को मजबूर हैं। लखीमपुर में गृह राज्य मंत्री के बेटे ने जिस तरह आंदोलित किसानों को गाड़ियों से कुचला, वह सरकार की किसानों के प्रति रवैय्ये का प्रतीक बन कर उभरा है।
इसी तरह उत्तर प्रदेश में छात्र युवाओं के भविष्य के साथ भी सरकार का खिलवाड़ जारी है। एक तरफ उनके रोजगार के अवसर लगभग खत्म हैं दूसरी तरफ पेपर लीक और परीक्षाओं में संगठित भ्रष्टाचार के कारण इलाहाबाद जैसे शिक्षा के बड़े केंद्र पर पिछले दस वर्षों में सैकड़ों छात्रों ने आत्महत्या किया है।
भाजपा के शासनकाल में औरतों के मान सम्मान और इज्जत को बुरी तरह रौंदा गया है। अपराधी, गुंडे व बलात्कारी सम्मानित हुए हैं । इन्हें सत्ता द्वारा संरक्षण प्राप्त हुआ है। इनका मनोबल बढ़ा है। भाजपा सांसद बृजभूषण सिंह, जो महिला पहलवानों द्वारा व्यभिचार के लिए आरोपित है, के बेटे को भाजपा प्रत्याशी बनाकर उस परिवार को पुरस्कृत किया है। प्रजव्वल रेवन्ना जैसे रेपिस्ट को इनका आशीर्वाद मिला है। ऐसी एक नहीं अनेक घटनाएं हैं। यह एक भयावह परिस्थिति है, जिससे बाहर निकलने का रास्ता मौजूदा सरकार को बदल कर ही संभव हो सकता है।
ऐसी परिस्थिति में जब यह चुनाव हमारी आज़ादी की लडाई से अर्जित मूल्यों को संरक्षित करने का चुनाव बन गया है, एक नागरिक के रूप हमारे सामूहिक विवेक और प्रज्ञा की परीक्षा भी इसी दौरान होनी है। एक लेखक, संस्कृतिकर्मी, कलाकार, विचारक और अंततः एक संवेदनशील इंसान होने के नाते भी हम सबकी यह जिम्मेदारी है कि हम इस चुनाव को तानाशाही और कॉर्पोरेट फासीवाद की विदाई का अवसर बना दें। आइये, संघ और भाजपा की सांप्रदायिक फासीवादी नीतियों के खिलाफ लिखकर, बोलकर और इंडिया गठबंधन के प्रत्याशियों के पक्ष में मतदान कर हम भी लोकतंत्र और संविधान को संरक्षित करने के इस महा अभियान में अपना योगदान करें।
_प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच और इप्टा की उत्तर प्रदेश इकाई की ओर से जारी।_